ओ मांझी रे
- Shashii Bhushan
- Oct 17, 2022
- 8 min read
” न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।”
– भगवद्गीता ( २:२०)
“यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मती है और न मरती है। और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाली है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।”
– भगवद्गीता ( २:२०)

ओ मांझी रे,
अपना किनारा,
नदिया की धारा है….
हर सफर की एक मंज़िल होती है, और हर कार्य का एक लक्ष्य।
मंज़िल के बिना सफर भटकने जैसा ही है और लक्ष्य विहीन कार्य का कुछ अर्थ ही नहीं है।
जीवन,
हर पल, हर रोज़,
एक नए लक्ष्य के साथ, एक नयी मंज़िल की ओर ही आगे बढ़ता है।
इस जीवन का निर्माण, शरीर और आत्मा, दोनों ही मिलकर करते हैं,
और जीवन, भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों आयामों को साधते हुए ही आगे बढ़ता हैं।
भौतिक दुनिया में रहते हुए, शरीर जो भी लक्ष्य तय करता है और जो भी उपलब्धियां हासिल करता है, वे सब तो आसानी से दिख जाती हैं।
पर आत्मा का क्या?
क्या शरीर के लक्ष्य ही आत्मा के लक्ष्य है?
क्या शरीर की उपलब्धि ही आत्मा की उपलब्धि है?
नहीं।
क्योंकि…
आत्मा कभी नहीं मरती, मरता है तो केवल शरीर। शरीर बदल-बदल कर, आत्मा जीवन-मृत्यु के चक्र के साथ, समय की नदी में बहती रहती है।
समय की ये धारा मानव जाति के जनम से बहुत पहले से ही निरंतर बहती रही है, और अनंत काल के लिए बहती रहेगी।
इस नदी में, हर अंत एक शुरुआत है, और हर शुरुआत एक अंत।
तो फिर,
अनंतकाल तक रहने वाली इस आत्मा का क्या उद्देश्य है? और क्या उपलब्धि है?
शरीर और आत्मा का रिश्ता तो शरीर के साथ ही ख़त्म हो जाता है, तो आत्मा का लक्ष्य कैसे निर्धारित होता है?
कोई भी लक्ष्य, समय के बंधन में बंधा होता है, बिना समय सीमा के कोई लक्ष्य हो ही नहीं सकता।
समय के पार कोई उद्देश्य नहीं रहता।
क्या हम बता सकते हैं की ये सूरज जो, हर सुबह आकर, शाम को चला जाता है, इसका क्या लक्ष्य है? या ये जो पृथ्वी सूरज के चारों और घूमती रहती है, उसका क्या उद्देश्य है?
जो भी कार्य समय के परे होते हैं,और उंनका कोई ध्येय नहीं होता, वे सदा के लिए होते हैं।
जिस प्रकार एक अभिनेता मंच पर अपनी भूमिका निभाकर चला जाता है पर मंच सदा के लिए रहता है, उसी तरह शरीर तो चला जाता है पर आत्मा एवं समय का प्रवाह चलता ही रहता है।
शरीर का आगमन जन्म के साथ है तो मृत्यु के साथ प्रस्थान, परन्तु आत्मा तो जनम से पहले भी थी और मृत्यु के बाद भी चिरकाल तक रहेगी।
इसलिए,
आत्मा का कोई भी लक्ष्य नहीं होता, कोई उपलब्धि नहीं होती। इस बहाव में रहना और चलते चले जाना ही आत्मा का लक्ष्य है,
और कुछ भी नहीं।
समय की इस नदी में, सफर ही आत्मा की मंजिल है…. अपना किनारा ही नदिया की धारा है….
औ मांझी रे
अपना किनारा,
नदिया की धारा है….
गुलज़ार की ये ख़ासियत है कि उनके फ़िल्मी गीत जितने फिल्मों के किरदारों के साथ खड़े होते हैं, उतने ही फिल्म के बाहर, बिना किसी सन्दर्भ के भी।
और ये बात इस गीत पर भी पूरी तरह से लागू होती है
ये गीत वास्तव में आत्मचिन्तनशील है,
स्वयं को जानने का एक प्रयास है,
अपने दो आयामों, रूह और देह को पहचानने की चेष्टा है,
ये गीत,
स्वयं का, स्वयं से संवाद है।
इस गीत में गुलज़ार साब, बात तो रूह की यात्रा की कर रहे है पर सन्दर्भ भौतिक दुनिया का है !!!
…. और यही विशेषता, इस गीत को एक नए मुक़ाम पर ले जाती है।
यहाँ, नदिया की धारा आत्मा और आध्यात्मिक दुनिया की शाश्वत यात्रा को दर्शाती है, तो ‘किनारा’ किसी भी भौतिकवादी उपलब्धि का प्रतिनिधित्व करता है।
इस गीत की एक और विशेषता यह है कि इसकी हर एक पंक्ति एक मोती की तरह है, और हर एक मोती का अपने आप में एक स्वतंत्र मतलब है।
ऐसे लगता है जैसे सब मोतियों को एक विचार में पिरो कर ही ये गाना बनाया हुआ है।
जब यात्रा अंतहीन हो और चक्रीय रूप से घटित हो तो कोई अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता। इस सफर के दौरान, अगर कुछ भी एक लक्ष्य की तरह महसूस होता है, वो सब तो बस एक पड़ाव है, वो भी कुछ ही समय के लिए।
किसी भी इच्छा, भावना या उपलब्धि को हम जब तक चाहे पकड़ कर रख सकते हैं, लेकिन अंततः, हमें इस प्रवाह पर लौटना ही होता है, क्यूंकि ये सफर ही हमारी मंज़िल है। (अपना किनारा नदिया की धारा है…. )
“एक अच्छे यात्री की कोई निश्चित योजना नहीं होती है और वह कहीं पहुँचने का इरादा भी नहीं रखता है।” – Lao Tzu
साहिलों पे बहने वाले,
कभी सुना तो होगा कहीं…
अपने शुरूआती वर्षों में, शिशु अक्सर किसी एक ही चीज़ को पकड़ के चलते हैं। जैसे कि माँ को, कहीं भी हों, किसी के साथ भी हो, वो सिर्फ माँ को ही पहचानते है और उसी को ढूँढ़ते हैं,
अथवा, किसी प्रिय वस्तु जैसे कोई खिलौना ; कभी रोने पर चुप होते है तो उसी खिलौने को देखकर,
या, खाना तभी खाते हैं जब सामने मनपसंद कार्टून शो चले।
ऐसे ही, लोगों को भी, ये बहुत कहते सुनते है कि, ‘मेरा मूड off हो तो फलां (वस्तु) मिलते ही ठीक हो जाता है’, ‘जब तक फलां काम (आदत) नहीं करूँ मेरा दिन नहीं शुरू होता’, ‘फलां (व्यक्ति) से मिलता हूँ तो मेरा दिन ही ख़राब (या अच्छा ) हो जाता है’ इत्यादि।
दरअसल, किसी एक सहारे को पकड़ कर चलने की ये जो प्रकृति है, ये शिशुपन की वही आदत है जो उम्र भर छूटती
नहीं !
कोई वस्तु या आदत हमें एक क्षणिक आनंद देती है और, धीरे-धीरे हम उसी आनंद को अपना सहारा मान लेते है, और जब कभी वो सहारा मौजूद नहीं रहता तो हम में असुरक्षा की भावना पैदा हो जाती है।
जब ये निश्चित नहीं है कि इस बहाव में कोई भी वस्तु आपके पास कब तक रह पायेगी, तो उसमे पूर्ण सुरक्षा ढूँढ़ना व्यर्थ है। इस नदी में, आप किसी भी सहारे को पकड़ लें, समय का ये बहाव रुकने वाला नहीं है। बेहतर यही है कि हम भी इसी के साथ बहते रहे और जो कुछ भी रस्ते में आता है, उसे बिना किसी मोह के स्वीकार करें।
किसी एक इच्छा, किसी एक भावना, किसी एक वस्तु आदि से मोह करना ऐसा ही है जैसे किनारा पकड़ कर बहना…आप नदी में तो हो, पर बह नहीं रहे होते, बहने का एक भ्रम होता है… साहिलों पे बहने वाले कभी सुना तो होगा कहीं …
“यदि आप इसे जीवन में सुरक्षित रूप से खेलते हैं, तो आपने फैसला किया है कि आप अब और नहीं बढ़ना चाहते हैं” – Shirley Hufstedler
यह एक अजीब विडंबना ही है कि ऐसी दुनिया में जहां भावनाएं, लोग, परिस्थितियाँ या परिवेश सब कुछ क्षणभंगुर है, ऐसी दुनिया में हम सब कुछ permanent चाहते हैं !
पर,
बहते पानी में कुछ permanent हो सकता है क्या?
जीवन पलों में चलता है, पिछले पल से लगाव भी ऐसे ही है जैसे किनारे से चिपके रहना।
किनारे के आसपास भटकना तो कागज़ की नाव का ही लक्षण है क्यूंकि उसकी तो कोई मंज़िल ही नहीं है।
परन्तु किनारों पर टिके रहने से हासिल कुछ नहीं होता ,पानी तो बहता ही रहता है।
कागज़ों की कश्तियों का,
कहीं किनारा होता नहीं…
अपने लिए सभी प्रकार के सुख-साधन ढूंढ़ने की तलाश हमारे अंदर एक insecurity भर देती है, जिसके कारण हम सभी साधनो से ऐसे ही चिपके रहते हैं जैसे एक कागज़ की नाव किनारे को पकड़ लेती है।
लेकिन क्या, कागज की नाव पर सवार होकर, कभी भी, कहीं भी पहुँचा जा सकता है?
क्या, कागज़ की नाव पर भरोसा किया जा सकता है?
क्या, कागज़ की नाव को कभी कोई मंज़िल मिल सकती है?
क्या यह सच नहीं है कि हम सब भी कागज की नाव की तरह ही हैं,
क्यूंकि हम भी उतने ही नाजुक हैं, हमारा जीवन भी भंगुर है,
और वास्तव में, हमारे लिए भी कोई मंज़िल ही नहीं है?
… कागज़ों की कश्तियों का, कोई किनारा होता नहीं
कोई किनारा,
जो किनारे से मिले तो,
अपना किनारा है…
जीवन की नदी भी दो किनारों के बीच बहती है और हमारा मन इसी सत्य को मानने को तैयार नहीं होता।
हर एक स्थिति, हर एक मोड़, हर एक पल में हमें दो options मिलते है।
(गुलज़ार साब ने कहा भी है… इस मोड़ से जाते हैं, कुछ सुस्त कदम रस्ते, कुछ तेज़ कदम राहें…)
वैसे तो ये बहुत normal स्थिति है, पर ये तब कठिन हो जाती है जब हम पाना तो एक को चाहते हैं, पर दूसरी option को छोड़ना नही चाहते !
लेकिन ऐसा तो संभव ही नहीं है।
और ऐसा अक्सर ही होता है,
कि हम दो संभावनाओं के बीच फंसे रहते हैं।
तो,
एकमात्र उपाय यही बचता है कि बीच का एक ऐसा रास्ता निकला जाये, जो दोनों options के बीच में संतुलन बनाये।
ये बीच का संतुलन तो बहुत ही आदर्श स्थिति है।
पर ऐसा कभी हो सकता है?
नदी के दोनों किनारे आपस में मिल सकते हैं क्या?
क्या वो आदर्श स्थिति हम पा सकते हैं जहाँ हम उसी किनारे पर संतुष्ट रहें जिस पर हम पहुंचे हैं ?
कोई ऐसा किनारा है जो हमारा अपना किनारा है?
कोई किनारा, जो किनारे से मिले, वो अपना किनारा है …
पानियों में,
बह रहे हैं,
कई किनारे टूटे हुए…
इस दुनिया में कुछ भी हमेशा के लिए नहीं रहता है।
भौतिकवादी दुनिया हर किसी को एक पैमाने की नज़र से देखती है,
और,
ये पैमाना ही लोगों के बीच में अंतर पैदा करता है,
इसी अंतर से अहंकार का जन्म होता है,
और,
बहुत से लोगों को यह आभास होने लगता है कि वे सर्वोच्च, अजेय और शाश्वत हैं।सफर के मुसाफिर खुद को ही मंज़िल मान बैठते हैं, नदी का पानी खुद को ही किनारा मान लेता है,
पर,
यहाँ तो कुछ भी हमेशा के लिए नहीं है।
वो सब जो बहुत बड़े, मजबूत और सक्षम माने जाते हैं, वे सभी इस नदी में बह जाते हैं।
समय का प्रवाह कुछ भी नहीं छोड़ता है।
कुछ भी,
कोई भी,
स्थायी नहीं है।
ये बहाव कभी-कभी तो किनारों को भी बहा लेता है…. पानियों में बह रहे हैं, कई किनारे टूटे हुए
“उस व्यक्ति ने अमरत्व प्राप्त कर लिया है, जो किसी सांसारिक वस्तु से व्याकुल नहीं होता” – स्वामी विवेकानंद
रास्तों में,
मिल गए हैं,
सभी सहारे छूटे हुए…
पानी में तैरती ऐसी नौकाओं को देखा है, जिनमें कोई नाविक नहीं होता?
ऐसी नौकाएं पानी के बहाव के साथ ही बहती रहती है।
कभी-कभी दो नौकाएं एक साथ आती हैं तो कभी छितर जाती हैं।
कौनसी नाव, कितनी देर, किस नाव के साथ रहेगी,
ये पानी का बहाव तय करता है,
नाव नहीं।
ऐसा ही होता है हमारे जीवन में भी।
हम सब भी समय की धारा में ऐसे ही बह रहे हैं,
जैसे बिना नाविक की नाव।
साथ में बहते हुए कभी-कभी कुछ लोग हमारे साथ कुछ समय के लिए रहते हैं, और फिर अपनी आगे की यात्रा पर निकल जाते हैं,
कभी हम किसी को सहारा देते हैं, और कभी, कोई हमें संभालता है।
साथ में चलना हमें आनंद देता है तो बिछड़ना दुःख से भर देता है।
पर शरीर की नाव तो सदा के लिए नहीं रहती,
शरीर के नष्ट होने के बाद,
सिर्फ आत्मा ही उस अनंत यात्रा में चलती रहती है।
आत्मा की यात्रा में,
मिलना-बिछड़ना,
कुछ नहीं रहता
आत्मा की इस अनंत यात्रा में, वो सब फिर मिलते है जो भौतिक संसार में बिछड़ गए थे।
बस रूप बदल चूका होता है,
…रास्तों में मिल गए हैं, सभी सहारे छूटे हुए…
कोई सहारा,
मंझधारे में मिले तो,
अपना सहारा है…
समय की इस नदी में, कोई किसी के साथ भी चले,
पर ये यात्रा,
हर एक के लिए एक निजी यात्रा ही है।
ये एक ऐसी यात्रा है, जिसमें आप उतने ही अकेले हैं जितने किसी के साथ,
क्यूंकि,
ये निश्चित ही नहीं है कि कौन,
कब तक,
किसके साथ रहेगा।
साथ में चलते हुए भी, हम हर इंसान पर निर्भर नहीं हो सकते।
हर कोई,
हर किसी का सहारा नहीं बन सकता।
वो,
जिनको,
अक्सर हम अपना मान लेते हैं, सिर्फ एक भ्रम मात्र ही होते है।
तो, अपना कोई भी नहीं होता?
होता है,
वही,
जो जरूरत के समय मिले,
सच्चा सहारा वही है जो गिरते समय संभाले,
बुरे समय में केवल एक सच्चा दोस्त ही आपके साथ खड़ा होता है … कोई सहारा मंझधारे में मिले तो, अपना सहारा है …
वरना,
सब रिश्तों में उस सहारे को ढूंढ़ना,
और उसके होने पर विश्वास करना,
सिर्फ कल्पना मात्र है, ग़लतफहमी है
“अपना सहारा,
नदिया की धारा है।”
जीने के अलावा जीवन का और कोई उद्देश्य नहीं है।
“यदि जीवन की यात्रा अंतहीन है, तो उसका लक्ष्य कहाँ है? जवाब है, यह हर जगह है।”
रविंद्रनाथ टैगोर
स्वयं का स्वयं से संवाद
बहुत ही सुंदर अभ्यक्ति..
लगता है जैसे पूरे जीवन का सार समहित हो इसमें... पढ़कर अच्छा लगा... ऐसे ही लिखते रहे शशि भूषण जी