नाम गुम जायेगा
- Shashii Bhushan
- Oct 17, 2022
- 11 min read
“सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु, प्रमाणमन्तकरण प्रवृत्तयः” – महाकवि कालिदास (अभिज्ञान शाकुन्तलम्)

नाम गुम जायेगा
चेहरा ये बदल जायेगा
मेरी आवाज़ ही पहचान है
ग़र याद रहे
नाम गुम जायेगा …
ये सही बात ही है कि कोई भी नाम चाहे जितना बड़ा हो, हमेशा के लिए नहीं रहता ;
चेहरा ये बदल जायेगा … ये भी बहुत साधारण सी ही बात लगती है कि चेहरा बदलता ही रहता है, एक जैसा तो कभी रह ही नहीं सकता।
मेरी आवाज़ ही पहचान है …ये भी एक सच्चाई ही है कि सिर्फ आवाज़ से ही किसी की भी पहचान हो सकती है।
सो, पहली नज़र में तो यह गीत कुछ तथ्यों को ही पेश करता सा लगता है।
और, यदि तीनों ही बातें साधारण से तथ्य ही हैं, तो ऐसा क्या है जो इस गाने को ख़ास बनाता है ….गुलज़ार साब ने लिखा है तो यूँ ही नहीं लिख दिया होगा, उनके तो हर एक शब्द के पीछे पूरी कहानी होती है।
गुलज़ार साब कहते हैं, ‘मेरी आवाज़ ही पहचान है’ , पर आवाज़ तो बदलती रहती है, उम्र बढ़ने के साथ आवाज़ में भी बदलाव आते ही रहते हैं तो कोई भी एक आवाज़ मेरी पहचान कैसे हो सकती है?
तो, गुलज़ार साब का क्या मतलब था, जब उन्होंने कहा, “मेरी आवाज़ ही पहचान है“?
या,
इस गीत में एक अंतर्विरोध हैं?
आइए उस पर एक नजर डालते है।
इस गाने के बारे में सोचते समय मुझे अचानक से अपनी माँ की एक बात याद आ गयी। जब कभी कोई दुविधा होती थी या समझ नहीं आता था कि क्या करना है, तो मेरी माँ मुझसे कहा करती थी, जा थोड़ी देर शांति से बैठ, अपने आप पता लग जायेगा कि क्या करना है !!
और, ये फार्मूला हमेशा मदद कर ही देता था और अकेले में थोड़ी देर बैठ कर ही रास्ता अपने आप दिखने लगता था …पर, ये समझ कभी नहीं पाया कि क्या होता है, कैसे अकेले बैठने से सब जवाब मिल जाते हैं, कौन है जो आकर सब बता देता है?
बाद में जब गुलज़ार साब का लिखा ये गाना सुना तो कुछ-कुछ समझ सा आने लगा, कि वो जवाब तो अपने अंदर से ही मिलते हैं, वो अपनी ही अंदर की आवाज़ होती है जो कभी-कभी ही सुनाई देती है
और तभी, महाकवि कालिदास के ऊपर लिखे श्लोक का मतलब सामने आ गया: “संत लोगों के लिए जब भी ये दुविधा होती है कि कोई कार्य अच्छा है या बुरा, तो उनकी अपनी आंतरिक आवाज़ ही अंतिम निर्णायक होती है ”
सुकरात ने भी बहुत पहले ही एक ऐसी दैवीय आवाज़ के बारे में कहा था कि ये एक ऐसी अंदरूनी आवाज़ है जो उन्हें गलतियां करने के खिलाफ चेतावनी देती है, सुकरात के अनुसार ये अंदरूनी आवाज़ भगवान का ही एक उपहार है।
जब गुलज़ार कहते हैं, “मेरी आवाज़ ही पहचान है”, तो वह भी उसी आंतरिक आवाज़ की बात कर रहे हैं, जिसे “अंतर्ज्ञान” भी कहते हैं।
यही तो वो आवाज़ है जो मेरे अंदर से आती थी, जब कभी मैं अपनी माँ के कहने पर कुछ देर शांति से बैठता था ।
हाँ, वही आवाज़, जो शायद दिल से निकलती है, वही आवाज़, जिसको कानों से नहीं सुना जा सकता ….वही आवाज़, जो आँखें बंद करके बैठो तो भीतर ही गूंजने लगती है …वही मेरी आवाज़ है, जो मुझे बताती है कि कब और क्या करना है
मेरी ख़ुद की आवाज़…
मेरी ख़ुद की पहचान…
उसी आवाज़ को अंतरात्मा की आवाज़ कहते हैं ….
“दिल से जो पुकार उठती है, वही असली आवाज़ है… बाक़ी जो सुनाई देता है वह उसी की अनुगूँज है” – रूमी
गुलज़ार जानते हैं कि नाम या प्रसिद्धि बहुत ही अल्पकालिक है, और भौतिक गुण जैसे चेहरा या आवाज़ भी बदलते ही रहते हैं इसलिए वो स्पष्ट तौर पर कह देते हैं कि मेरी वो आवाज़ जो मेरे ही अंदर कहीं से निकलती है, वही मेरी असली पहचान है; क्यूँकि, ये मेरी आत्मा की आवाज़ है जो कभी बदलती नहीं।
लेकिन, हमें अपनी अंतरात्मा की आवाज को क्यों पहचानना है और यह हमारी पहचान कैसे बनती है?
“निर्मल अंतःकरण को जो प्रतीत हो, वही सत्य हैं” । – स्वामी विवेकानंद
हमारी वास्तविक पहचान हमारा चरित्र है, जिसका निर्माण हमारे द्वारा किए जा रहे कार्यों से होता है; हमारे कार्य हमारे विचारों से प्रभावित होते हैं; और, हमारे मूल से निकलने वाली उस मूक आवाज़ पर हम जिस तरह से प्रतिक्रिया देते हैं, उन प्रतिक्रियाओं से ही हमारे विचार बनते हैं। तो, सीधे तौर पर वही आवाज़ हमारी पहचान बनती है।
यही आवाज़ हमें सिखाती है क़ि नैतिक क्या है और अनैतिक क्या, ग़लत क्या है और सही क्या!
जिंदगी में जब भी हम कुछ नया सोच रहे होते हैं, नया करने जा रहे होते हैं, तो हमारे अंदर से एक आवाज़ आती है जो हमें चेताती है, हमसे कुछ कहती है। लेकिन जब हम उस आवाज को सुनना बंद कर देते हैं, या उसे नकारना शुरू कर देते हैं, फिर वो आवाज हमें धीरे-धीरे सुनाई देना भी बंद कर देती है। इसलिए, बहुत ज़रूरी है कि हम अपनी अंतरात्मा की आवाज को हमेशा जगाए रखें, क्यूँकि वो हमें जिंदगी में कभी भटकने नहीं देगी।
एक चीनी कहावत भी है, ‘अपने विचारों से सावधान रहें, क्योंकि आपके विचार आपके शब्द बन जाते हैं। अपने शब्दों से सावधान रहें, क्योंकि आपके शब्द आपके कार्य बन जाते हैं। अपने कार्यों से सावधान रहें, क्योंकि आपके कार्य आपकी आदत बन जाते हैं। अपनी आदतों से सावधान रहें, क्योंकि आपकी आदतें ही आपका चरित्र बन जाती हैं। अपने चरित्र से सावधान रहें, क्योंकि आपका चरित्र ही आपकी नियति बन जाता है।’
यह आंतरिक आवाज, जिसे अक्सर हम अंतरज्ञान या gut feeling भी कहते हैं, इसकी एक दिलचस्प विशेषता है कि यह कोई वास्तविक ध्वनि नहीं है और तो और, इसका कोई भौतिक अस्तित्व भी नहीं है। यह तो हमारे अंदर से उठती ऐसी आवाज़ है जिसे वैसे तो केवल हम ही सुन सकते हैं, पर यदि हम इसका पालन करें तो पूरी दुनिया को ही ये सुना सकते हैं!
जैसा कि सभी महापुरुषों ने किया, उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को पहचाना और सुना, और उसके बाद दुनिया ने उन्हें सुना।
गुलज़ार साब इस बात से भी अच्छी तरह से वाक़िफ़ है कि, अक्सर किसी मजबूरी या फ़ायदे के कारण हम अपने भीतर से आती इस आवाज़ को नज़र अंदाज कर देते हैं, इसलिए सिर्फ़ एक शब्द के इस्तेमाल से ही वे हमें इस मूक आवाज के अस्तित्व की याद दिलाते है!
वह कहते हैं, ‘मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे…’
यही गुलजार की एक बहुत बड़ी खूबी है कि सिर्फ एक शब्द ‘गर’ के साथ ही वे हमारे दिमाग को इस आवाज़ की वास्तविकता की बारे में झकझोर देते हैं। ये एक शब्द ‘गर’ गाने की सीधी चलती पंक्तियों को U-Turn देकर एक नया अर्थ सामने ले आता है, और ये नया अर्थ एक तरह की चेतावनी भी है!
ज़रा इन lines को बिना ‘गर’ के देखें तो समझ आएगा की सिर्फ़ एक शब्द से इतना कुछ कह देना, किसी जादू से काम नहीं है।
यदि हम अपने विवेक पर ध्यान दे पाते हैं और इस आवाज़ को सुन पाते हैं तो ही यह आवाज़ हमारी असली पहचान है
अन्यथा, इस आवाज़ को कोई अस्तित्व ही नहीं है।
कैसी अद्भुत बात है ना कि, यही आवाज़ हमारी पहचान है और इस आवाज़ की अस्तित्व की ज़िम्मेदारी भी हमारे ही ऊपर है!
वक़्त के सितम,कम हसीन नहीं,
आज है यहां, कल कहीं नहीं,
वक़्त से परे,मिल गए कहीं,
मेरी आवाज़ ही पहचान है…
” बदलाव के अलावा कुछ भी, हमेशा के लिए नहीं रहता है।” – बुद्ध
जीवन में सब कुछ निरंतर बदल रहा है, चाहे वो विचार हों, या भावनाएँ, आसपास का माहौल या फिर लोग। समय के साथ-साथ कुछ भी एक सा नहीं रहता और अगर रहता भी है तो वास्तविक जैसा नहीं रहता।
स्थायी, कुछ भी नहीं है।
यही सत्य है।
हर सत्य की तरह, इस सत्य को देखने के तरीक़े भी अलग-अलग हो सकते हैं।या तो हम इसके बारे में सोच कर चिंतामग्न रहें, हर चीज़ के स्थायी होने की कामना करें और जो नहीं हो सकता है वही चाह कर अवसाद में जीएँ।
या फिर,
इस सत्य को स्वीकार करें कि कुछ भी हमेशा के लिए नहीं रहने वाला, और वक़्त के इस निरंतर घूमते पहिए को ही यथार्थ मान लें। क्यूँकि इसी में असली सुख छिपा है।
गुलज़ार का कहना है कि वर्तमान क्षण में सब कुछ और हर कोई, समय बीतने के साथ मिट जाएगा (आज है यहाँ, कल कहीं नहीं); जो कुछ भी आज यहाँ हमारे चारों और है, वो कल नहीं रहने वाला।
चूँकि, वक़्त की ये निरंतर गति ही असली सत्य है और ये भी कि, वक़्त किसी को भी नहीं छोड़ने वाला; तो गुलज़ार सब कहते हैं कि बेहतर है हम इस सत्य को स्वीकार करें। इससे समय की अनिश्चित चाल हमें कष्ट नहीं देगी। गुलज़ार साब इस को बड़ी ख़ूबसूरती से कह देते है ( वक़्त के सितम, कम हसीं नहीं)।
अगर सितम को ही हसीं मान लिया तो उससे बढ़कर क्या स्वीकार करेंगे; और फिर, सितम कभी कष्ट देंगे क्या?
“मनुष्य की आत्मा अमर और अविनाशी है” – भगवद् गीता
जीवन एक शाश्वत यात्रा है जहां आत्माएं जीवन के पार भी यात्रा करती रहती हैं।
गुलज़ार कहते हैं कि भौतिक दुनिया से दूर, निरंतर चलने वाली इस यात्रा में भी ये आवाज़ ही हमारी सच्ची पहचान है।
एक कहावत सुनी होगी, ‘आत्मा पर बोझ’। जब हम अपने अंदर से उठती आत्मा की आवाज़ की अनदेखी कर देते हैं, तो वही अनदेखी हमारी आत्मा पर एक बोझ बन जाती है। कभी-कभी, हमारे कुछ कार्य एक अपराध बोध दे जाते हैं, जिसके कारण हमें कुछ लोगों से मुँह छिपाना पड़ सकता हैं। यहाँ इस भौतिक दुनिया में तो वो आसानी से हो सकता है, लेकिन हमेशा के लिए तो हम यहाँ रहने वाले नहीं है और वहाँ पर वही लोग मिल गए तो (वक़्त से परे मिल गए कहीं)?
फिर क्या करेंगे?
बेहतर है की आत्मा पर कोई बोझ ही नहीं रखा जाए!
गुलज़ार की इन lines में एक चेतावनी भी छुपी है। अगर हम को लगता है कि हम, किसी भी प्रकार से श्रेष्ठ हैं तो भी वक़्त हमें छोड़ने वाला नहीं। आज जो है वो कल नहीं रहेगा। हो सकता है क्षणिक तौर पर हमको कुछ फ़ायदा हो जाए पर जीवन यात्रा तो अनंत है, इसलिए बेहतर यही है कि हम समझ जाएँ कि सिर्फ़ हमारी अंतरात्मा की आवाज़ ही हमारी पहचान है।
जो गुज़र गई, कल की बात थी,
उम्र तो नहीं, एक रात थी,
रात का सिला अगर, फिर मिले कही,
मेरी आवाज ही पहचान है…
“आज आपके शेष जीवन का पहला दिन है” — अमेरिकी कहावत
समय सिर्फ़ पलों में ही चलता है। भूत, वर्तमान, भविष्य में तो इसे हमने बाँटा है। हमारे पास जो होता है वो सिर्फ़ वर्तमान ही है। जो बीत गया वो सदा के लिए गया, कभी लौट ही नहीं सकता। उस बीते अतीत की तो सिर्फ़ यादें ही रह जाती हैं।
अतीत की यादें हमेशा ही भावनाओं से भरी होती हैं। कुछ यादें ख़ुशी लाती हैं तो कुछ दुखी भी कर देती हैं। कई बार हम अपने किसी किए गए काम को दूसरे तरीक़े से करना चाहते हैं, पर ये तो सम्भव नहीं। जो हो गया वो दुबारा नहीं हो सकता। अतीत की कोई बात, अतीत का कोई भी पल हमारे वर्तमान से ऊपर नहीं हो सकता!
कभी नहीं।
अतीत को एक आसान तरीक़े से कैसे देखा जाए, ये गुलज़ार हमें बताते हैं।
जो गुज़र गयी, कल की बात थी ; जो कुछ भी बीत चुका, चाहे कितना भी अच्छा था वो अब केवल बीत हुआ कल ही है जो लौटने वाला नहीं है। कोई भी बीता हुआ कल हमारे भविष्य को निर्धारित नहीं कर सकता, उस बीते हुए कल का कोई भी भार हमारे आज या आनेवाले कल पर नहीं डाला जा सकता। वो गुज़रा कल जीवन का एक अंश ही है, पूरा जीवन नहीं ( उम्र तो नहीं, एक रात थी)।
बीता जीवन तो सिर्फ़ एक रात जैसे ही ही है, और अब उस रात के बाद एक नया दिन सामने है, पूरा जीवन सामने है। कोई भी बीता कल हमारे जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता।
अतीत कभी साथ नहीं रहता, पर अतीत के कार्य और उंनके परिणाम साथ रहते हैं, उनसे बचना मुश्किल है। जब कभी भी ऐसे ही किए गए कुछ कार्यों का ऐसा परिणाम सामने आता है (रात का सिला अगर, फिर मिले कहीं) जो हमें असहज कर देता है, तो उस भावनात्मक स्थिति से निबटने के लिए भी गुलज़ार एक रास्ता सूझा देते हैं। अगर किया गया कार्य हमारे विवेक के अनुरूप है तो हमें परिणामों के बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनने का यही फ़ायदा है कि ये कभी ग़लत नहीं करने देती, कभी भटकने नहीं देती, क्यूँकि यह हमारे गहरे अवचेतन से निकलती है।
इन पंक्तियों को समझने का एक और तरीक़ा भी है। अगर हमें अपने किसी गुज़रे हुए पल से दुःख या कोई शर्मिंदगी है तो कोई बात नहीं, वो तो सिर्फ़ एक पल ही था, पूरा जीवन नहीं। हम बस ये याद रखें की उम्र अभी बाक़ी है और आज के पल में ऐसा कुछ ना करें कि आने वाला कोई भी पल ऐसी किसी भावना को लेकर आए जिसका सामना करने में हम ख़ुश महसूस ना करें। और, उसका एक ही तरीक़ा है – अपने अंतर्मन की सुने!
दिन ढले जहाँ, रात पास हो,
जिंदगी की लौ, ऊंची कर चलो
याद आए गर कभी, जी उदास हो,
मेरी आवाज ही पहाचान है…
“शुरुआत की कला महान है, लेकिन अंत की कला बड़ी है” – हेनरी वड्सवर्थ लॉन्गफेलो
जीवन के हर पहलू में, कोई काम कैसे शुरू होता है, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वो समाप्त कैसे होता है। अंत के करीब आकर, गति को बनाए रखना मुश्किल होता है। अंतिम पड़ाव पर ही अधिक ऊर्जा और सकारात्मक मानसिकता की ज़रूरत होती है। जैसे की धावकों की दौड़ में वही जीत पता है जिसने अंतिम चरण में भी उतनी ही, या उस से अधिक ऊर्जा लगायी हो जितनी उसने शुरुआती दौर में लगायी थी।
गुलज़ार इस बात पर बहुत ज़ोर देते हैं कि आख़िरी पड़ाव का सामना भी उतने ही उत्साह के साथ किया जाए। ‘दिन ढले’ का मतलब जीवन की वो शाम है जब हम पूरा दिन बिताकर थक चुके हैं। और, ‘रात’ मानव जीवनचक्र के दिन का अंत है, ये वो समय है जब रोशनी स्थायी रूप से बंद हो जाएगी (दिन ढले जहां, रात पास हो)।
जब इंतज़ार ख़त्म हो जाता है, तो सब कुछ ही ख़त्म सा हो जाता है।
जीवन की रात वही समय है जब ख़ास इंतज़ार नहीं रहता और इस कारण ऊर्जा का स्तर भी कम हो जाता है। बिलकुल वैसे ही जैसे कि पूरी रात जलने के बाद दीपक अपनी रोशनी खोने लगता है क्यूँकि बाती लगभग जल चुकी है। ऐसे में एक ही तरीक़ा होता है कि बाती को खींच कर ऊपर लाया जाए, जिससे नयी बाती भी उतनी ही रोशनी के साथ जलती रहे। ऐसे ही, जीवन की उस संध्या में आकर हम भी वो उत्साह खो बैठते हैं। गुलज़ार का कहना है कि जीवन के उस अंतिम पड़ाव में भी अपना उत्साह, अपनी इच्छाशक्ति को हमें बनाए रखना चाहिए। और आने वाली रात का सामना भी एक सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ कारण चाहिए (ज़िंदगी की लौ, ऊँची कर चलो )
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने एक बार कहा था, “हम खेलना बंद नहीं करते क्योंकि हम बूढ़े हो जाते हैं; बल्कि हम बूढ़े हो जाते हैं क्योंकि हम खेलना बंद कर देते हैं”।
जब आगे देखने के लिए कुछ नहीं रहता तो हम पीछे ही देखना पसंद करते हैं।
जीवन की संध्या ही वह समय है जब जीवन सुखद और अप्रिय दोनों तरह की यादों को सामने लाता है। बहुत स्वाभाविक है कि बीते जीवन की सभी यादें हमारे सामने आएँ। हो सकता है कि उनमें से कुछ यादें दुःख या कोई पछतावा भी लेकर आएँ (याद आए गर कभी, जी उदास हो)। गुलजार के मुताबिक उस वक्त भी हमारी अंतरात्मा की आवाज ही एक मार्गदर्शक का काम करेगी। क्यूँकि वही एक आवाज़ है जो हमारे लिए एक नैतिक compass के रूप में कार्य करती है। अगर हमने उसका अनुसरण किया है तो अपने किसी भी निर्णय से आँख चुराने को कोई कारण नहीं है।
हमारी असली पहचान हमेशा से ही हमरा विवेक रहा है ना कि प्रसिद्धि या कोई भौतिक गुण।
गुलजार का ये गीत, वास्तव में एक पाठ की तरह है, जीवन के एक सबक के समान है।
विन्सेंट वैन गॉग के अनुसार, “अंतरात्मा की आवाज ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार है और जो कोई भी इसे सुनता है वह एक दोस्त का साथ पाता है, और कभी अकेला नहीं होता है”।
कोई चेहरा कितना भी सुंदर हो या कोई नाम कितना भी बड़ा हो, ना तो हमेशा के लिए रहने वाला और, ना ही कोई आपको उसके लिए याद करने वाला; कोई भी किसी को याद रखता है तो सिर्फ़ उसके चरित्र से; वो चरित्र जो तब बनता है जब कोई अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनता है, क्यूँकि वह आवाज़ हमारे अंत:करण की आवाज़ है,
वो ईश्वर की आवाज़ है,
हमें बस इसे सुनने की क्षमता चाहिए,
यही हमारी सच्ची आवाज है,
हमारी सच्ची पहचान है।
“तुम्हारे अंदर एक आवाज है, जो दिन भर फुसफुसाती है कि, ‘मुझे लगता है कि यह मेरे लिए सही है, मुझे पता है कि यह गलत है’, कोई शिक्षक, उपदेशक, माता-पिता, मित्र या बुद्धिमान व्यक्ति आपके लिए निर्णय नहीं ले सकते, आपके लिए क्या सही है; बस उस आवाज को सुनो जो अंदर बोलती है” — शेल सिल्वरस्टीन







Very well explained..each line of the song has been elaborated and nicely explained..The song is not easy to understand..so listeners cannot get close to the actual meaning of the song.. so it's great to bring out the real meaning of this song before the listeners.. the song has an appeal to connect with inner self..
Regards,
Nitin Khapre